
इस साल खेल मंत्रालय की तरफ़ से 27 खिलाड़ियों को अर्जुन पुरस्कार दिए गए जिसे लेकर विवाद भी हुए. लेकिन खो-खो जैसे पारंपरिक खेलों में क़रीब दो दशकों बाद मिले इस पुरस्कार ने इससे जुड़े सैकड़ों लोगों का उत्साह दुगुना कर दिया है. महाराष्ट्र की 27 साल की सारिका काले (Sarika Kale) की कहानी और भी ख़ास इसलिए है कि उनका संघर्ष प्रेरणा भी देता है और बेइंतहा दर्द की दास्तान भी नज़र आता है. खो खो के किसी खिलाड़ी को खेल दिवस पर 22 साल बाद पहली पुरस्कार मिला.NDTV संवाददाता विमल मोहन से बात करते वक्त महाराष्ट्र की सारिका काले भावुक हो गईं.
सारिका कहती हैं, "मेरे लिए तो बड़ी बात ये है कि 22 साल बाद मेरे खेल को ये पुरस्कार मिला है. इसके लिए मैं खेल मंत्री और खो-खो संघ के अधिकारियों, कोच और इससे जुड़े सभी लोगों को थैंक्स कहना चाहूंगी. मुझे लगता है इससे खो-खो के दूसरे खिलाड़ियों को प्रेरणा मिलेगी और ये खेल और आगे बढ़ेगा." वो बताती हैं कि ये खेल उनके गांव में बहुत लोकप्रिय है और इसलिए उन्होंने ये खेल खेलना चुना है. उनके कोच डॉ. चंद्रजीत जाधव सारिका के साथ अपने खो-खो संघ और खेल मंत्री से निजी तौर पर सम्मान के लिए दिल्ली आए हैं. डॉ. चंद्रजीत जाधव बताते हैं 2005 में वो पांचवीं कक्षा में पढ़ती
थीं और तभी से उस्मानाबाद (महाराष्ट्र) में उन्होंने खो-खो खेलना शुरू किया. कोच जाधव कहते हैं, "खो-खो उस्मानाबाद का सबसे लोकप्रिय खेल होने की वजह वहं इसमें बहुत ज़्यादा कंपीटीशन है.
लेकिन दो साल के अंदर ही सारिका का महाराष्ट्र की टीम में उसका चयन हो गया और 2016-17 में वो नेशनल टीम का हिस्सा बन गईं. यही नहीं 2016-17 गुवाहाटी सैफ़ (SAF) गेम्स में वो भारतीय टीम की कप्तान तक बन गईं. 3 महीने बाद 2017 में इंदौर में हुए एशियन चैंपियनशिप में उन्हें टूर्नामेंट की बेस्ट प्लेयर के ख़िताब से भी नवाज़ा गया." कोच जाधव बताते हैं कि इस लड़की का सफ़र दूसरे खिलाड़ियों से बिल्कुल अलग और बेहद संघर्षपूर्ण रहा है. 2014-15 में ग्रैजुएशन में पढ़ते वक्त वो कोच के पास गईं और खो-खो छोड़ने की बात कही. क्योंकि पिछले दस साल से उन्हें खाने को हर दिन एक वक्त से ज़्यादा कभी कुछ नहीं मिला. सिर्फ़ टूर्नामेट खेलते वक्त उन्हें अच्छा खाना मिल पाता था. बाक़ी वक्त वो ज़्यादातर मैगी या सस्ता टमाटर ही खा पाती थीं.
उनकी मां दूसरों के घर बर्तन मांजना पड़ता था और वो कपड़े सिलाई का काम भी करती थीं. ऐसे में सारिका चाहती थीं कि मां के साथ काम कर पैसे कमाएं ताकि घर का खर्च चल पाए. मगर उनकी दादी चाहती थीं कि सारिका का खो-खो ना छूटे और उन्होंने कोच जाधव से सारिका को समझाने को कहा. फिर कोच जाधव ने उन्हें समझाया कि इस खेल से उनका करियर बन सकता है. आज 22 नेशनल 3 इंटरनेशनल मैच खेल चुकी सारिका उस्मानाबाद में सरकारी स्पोर्ट्स अफ़सर हैं.
खेल मंत्री किरेन रिजिजू कहते हैं, "खो-खो बेशक ओलिंपिक्स का गेम नहीं हो लेकिन जापान को सुमो रेसलिंग की तरह इसे पारंपरिक खेल की तरह विकसित किया जा सकता है." ऐसे में इस खेल के खिलाड़ी ज़रूर उत्साहित हो सकते हैं और ये भी उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले सालों में खो-खो के खिलाड़ियों और भी अर्जुन पुरस्कार मिल सकेंगे. अर्जुन पुरस्कार पाने वाले खो-खो के खिलाड़ी इस प्रकार हैं:
1. 1970- सुधीर बी. परब (गुजरात)
2. 1971- अचला सुबेराओ देवरा (गुजरात)
3. 1972- भावना एच पारिख (गुजरात)
4. 1974- नीलिमा सी. सरोलकर (मध्य प्रदेश)
5. 1975- शीरंग जे इनामदार (महाराष्ट्र)
6. 1975- उषा वसंत नागरकर (महाराष्ट्र)
7. 1976- शेखर आर. धारवाडकार (महाराष्ट्र)
8. 1981- हेमंत एम तकलकर (महाराष्ट्र)
9. 1981- सुषमा सरोलकर (मध्य प्रदेश)
10. 1983- वीणा नारायण परब (महाराष्ट्र)
11. 1984- एस प्रकाश- (कर्नाटक)
12. 1985- सुरेखा बी कुलकर्णी (महाराष्ट्र)
13. 1998- शोभा नारायण- (कर्नाटक)
14. 2020- सारिका काले (महाराष्ट्र)
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